अफ़ग़ानिस्तान का इतिहास
वर्तमान में अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी अमीरात में संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो को शिकस्त देकर अफ़ग़ान मुजाहिदीन के नेतृत्व में इस्लामी शासन स्थापित किया जा चुका है
आज जो अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी अमीरात है उसका मानचित्र उन्नीसवीं सदी के अन्त में तय हुआ। अफ़ग़ानिस्तान शब्द कितना पुराना है इसपर तो विवाद हो सकता है पर इतना तय है कि १७०० इस्वी से पहले दुनिया में अफ़ग़ानिस्तान नाम का कोई राज्य नहीं था।
सिकन्दर का आक्रमण ३२८ ईसापूर्व में उस समय हुआ जब यहाँ प्रायः फ़ारस के हखामनी शाहों का शासन था। उसके बाद के ग्रेको-बैक्ट्रियन शासन में बौद्ध धर्म लोकप्रिय हुआ। ईरान के पार्थियन तथा भारतीय शकों के बीच बँटने के बाद अफ़ग़निस्तान के आज के भूभाग पर सासानी शासन आया। फ़ारस पर इस्लामी फ़तह का समय कई साम्राज्यों के रहा। पहले बग़दाद स्थित अब्बासी ख़िलाफ़त, फिर खोरासान में केन्द्रित सामानी साम्राज्य और उसके बाद ग़ज़ना के शासक। गज़ना पर ग़ोर के फारसी शासकों ने जब अधिपत्य जमा लिया तो यह गोरी साम्राज्य का अंग बन गया। मध्यकाल में कई अफ़ग़ान शासकों ने दिल्ली की सत्ता पर अधिकार किया या करने का प्रयत्न किया जिनमें लोदी वंश का नाम प्रमुख है। इसके अलावा भी कई मुस्लिम आक्रमणकारियोंं ने अफगान शाहों की मदत से भारत पर आक्रमण किया था जिसमें बाबर, नादिर शाह तथा अहमद शाह अब्दाली शामिल है। अफ़गानिस्तान के कुछ क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के अंग थे।
अहमद शाह अब्दाली ने पहली बार अफ़गानिस्तान पर एकाधिपत्य कायम किया। वो अफ़ग़ान (यानि पश्तून) था। १७५१ तक अहमद शाह ने वे सारे क्षेत्र जीत लिए जो वर्तमान में अफगानिस्तान और पाकिस्तान है। थोड़े समय के लिए उसका ईरान के खोरासान और कोहिस्तान प्रान्तों और दिल्ली शहर पर भी अधिकार था। १७६१ में पानीपत के तृतीय युद्ध में उसने मराठा साम्राज्य को पराजित किया।
१७७२ में अहमद शाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र तिमूर शाह दुर्रानी गद्दी पर बैठा। उसने अफगान साम्राज्य की राजधानी कन्दहार से बदलकर काबुल कर दी। १७९३ में उसकी मृत्यु हो गयी। उसके बाद उसका बेटा ज़मान शाह गदी पर बैठा। धीरे-धीरे दुर्रानी साम्राज्य निर्बल होता गया।
अन्ततः सिखों ने महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में दुर्रानी साम्राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। सिखों के अधिकार में जो क्षेत्र आये उनमें वर्तमान पाकिस्तान (किन्तु बिना सिन्ध) शामिल था।
ब्रितानी भारत के साथ हुए कई संघर्षों के बाद अंग्रेज़ों ने ब्रिटिश भारत और अफ़गानिस्तान के बीच सीमा उन्नीसवीं सदी में तय की। १९३३ से लेकर १९७३ तक अफ़ग़ानिस्तान पर ज़ाहिर शाह का शासन रहा जो शांतिपूर्ण रहा। इसके बाद कम्यूनिस्ट शासन और सोवियत अतिक्रमण हुए। १९७९ में सोवियतों को वापस जाना पड़ा। इनकों भगाने में मुजाहिदीन का प्रमुख हाथ रहा। १९९७ में तालिबान जो अडिगपंथी सुन्नी कट्टर थे ने सत्तासीन निर्वाचित राष्ट्रपति को बेदखल कर दिया। इनको अमेरिका का साथ मिला पर बाद में वे अमेरिका के विरोधी हो गए। २००१ में अमेरिका पर हमले के बाद यहाँ पर नैटो की सेना बनी हुई है।
प्रागैतिहासिक काल से आर्यों के आगमन तक
[संपादित करें]मानव बसाव १०००० साल से भी अधिक पुराना हो सकता है। ईसा के १८०० साल पहले आर्यों का आगमन इस क्षेत्र में हुआ। ईसा के ७०० साल पहले इसके उत्तरी क्षेत्र में गांधार महाजनपद था जिसेक बारे में भारतीय स्रोत महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है।
फ़ारस और सिकन्दर का आक्रमण
[संपादित करें]ईसा के कोई ६०० साल पहले तक अफ़गान क्षेत्र मेडियाई साम्राज्य के अंग हुआ करते थे। इस समय मेडी लोग असीरीयाई लोगों के साथ जूडिया और मध्यपूर्व पर आक्रमण में मदद करते थे। पार्स के लोग उनके अनुचर सहयोगी हुआ करते थे। पर सन् ५५९ ईसापूर्व में पार्स (आधुनिक ईरान का फ़ार्स प्रांत) के राजकुमार कुरोश ने मेडिया के खिलाफ विद्रोह कर दिया। कुरोश ने इस तरह हखामनी माम्राज्य की स्थापना की जो सिकन्दर के आक्रमण तक कायम रहा। उसके बाद उसने असीरिया पर भी अधिकार कर लिया। इसके बाद कुरोश का साम्राज्य बढ़ता ही गया और यह
मिस्र से लेकर आधुनिक पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा तक फैल गया। ईसापूर्व ५०० में फ़ारस के हखामनी शासकों ने इसको जीत लिया। सिकन्दर के फारस विजय अभियान के तहते अफ़गानिस्तान भी यूनानी साम्राज्य का अंग बन गया। इसके बाद यह शकों के शासन में आए। शक स्कीथियों के भारतीय अंग थे। ईसापूर्व २३० में मौर्य शासन के तहत अफ़गानिस्तान का संपूर्ण इलाका आ चुका था पर मौर्यों का शासन अधिक दिनों तक नहीं रहा। इसके बाद पार्थियन और फ़िर सासानी शासकों ने फ़ारस में केन्द्रित अपने साम्राज्यों का हिस्सा इसे बना लिया। सासनी वंश इस्लाम के आगमन से पूर्व का आखिरी ईरानी वंश था। अरबों ने ख़ोरासान पर सन् ७०७ में अधिकार कर लिया। सामानी वंश, जो फ़ारसी मूल के पर सुन्नी थे, ने ९८७ इस्वी में अपना शासन गजनवियों को खो दिया जिसके फलस्वरूप लगभग संपूर्ण अफ़ग़ानिस्तान ग़ज़नवियों के हाथों आ गया। गज़नवी लोग तुर्क मूल के सुन्नी मुस्लिम थे। ग़ोर के शासकों ने गज़नी पर ११८३ में अधिकार कर लिया।
अफ़ग़ानिस्तान का एकीकरण
[संपादित करें]सत्रहवीं सदी के अन्त में कवि ने अफ़ग़ानिस्तान के कबाइली झगड़ों की खिल्ली उड़ाई और अफ़ग़ान एकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
आधुनिक काल
[संपादित करें]उन्नीसवीं सदी में आंग्ल-अफ़ग़ान युद्धों के कारण अफ़्ग़ानिस्तान का काफी हिस्सा ब्रिटिश इंडिया के अधीन हो गया जिसके बाद अफगानिस्तान में यूरोपीय प्रभाव बढ़ता गया। उधर उत्तर में रूसी साम्राज्य का विस्तार दक्षिण की तरफ होता जा रहा था। अंग्रेज़ों को डर था कि यदि वे अफ़गानिस्तान में घुस आते हैं तो उनके भारतीय अधिकार पर खतरा हो सकता है। इस लिए ब्रिटेन और रूस दोनों ने अफ़ग़ानिस्तान में दखल देना आरंभ किया। इस घटना को महाखेल का नाम दिया जाता है जिसमें दक्षिणी खोरासान (यानि अफ़गानिस्तान और पूर्वोत्तर ईरान) में दोनों देश अपने सहयोगियों के साथ अपने हित साधने में लगे थे।
य़ूरोपीय क्रीड़ांगन
[संपादित करें]१८२६ में दोस्त मोहम्मद काबुल की गद्दी पर बैठा। उसने अपने क़िज़िलबश कबीले के लोगों की मदद से अपनी स्थिति मजबूत की और अपने भाइयों के खतरे से अपने को ऊपर किया। उसके ऊपर जो सबसे बड़ी विपत्ति उस समय थी वो ये थी कि खाइबर के पूर्व में पश्तून इलाकों पर सिक्ख सेना अपना अधिकार जमा रही थी। १८३४ में पूर्व शाह शुजा दुर्रानी को दोस्त ने हरा दिया। पर उसके काबुल से दूर रहने के कारण सिक्ख पश्चिम की ओर और आगे बढ़ गए। रणजीत सिंह की सेना ने पेशावर पर अधिकार कर लिया। पेशावर के पश्चिम में वो इलाके थे जिसपर काबबुल का सीधा नियंत्रण बनता था। अब स्थिति चिंतनीय हो गई थी। १८३६ में जमरूद में दोस्त मोहम्मद की सेना ने उसके बेटे अकबर खान के नेतृत्व में सिक्खों को हरा दिया पर वे सिक्खों को पूर्णतः पीछे नहीं धकेल सके। पेशावर पर दुबारा आक्रमण करने की बजाय उसने ब्रिटिश भारत के नवनियुक्त गवर्नर लॉर्ड ऑकलैंड से सिक्खों के खिलाफ़ एक मोर्चे के लिए संपर्क किया। इसके साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में यूरोपीय हस्तक्षेप का सिलसिला शुरु हुआ।
महाखेल
[संपादित करें]ब्रिटेन और फ्रांस के बीच १७६३ में हुए पेरिस की संधि के बाद अंग्रेज भारत में एक मात्र यूरोपीय शक्ति बच गए थे। उधर रूसी साम्राज्य कॉकेशस से दक्षिण की तरफ बढ़ रहा था। जिस बात से ब्रिटिश साम्राज्य को सबसे अधिक चिंता हो रही थी वो थी ईरानी दरबार में बढ़ता हुआ रूसी प्रभाव। १८३७ में रूस ने ईरान के शाह को हेरात पर नियंत्रण के लिए प्रोत्साहित किया। हेरात पर ईरानी नियंत्रण के बाद अंग्रेज़ों को रूस की साम्राज्यवादी नीति से डर सा लगने लगा। ऑकलैंड ने दोस्त मुहम्मद से रूसियों तथा ईरानियों के साथ सभी सम्पर्क तोड़ लेने को कहा। इसके बदले में ऑकलैंड ने ये वादा किया कि वे रणजीत सिंह के साथ अफ़गानों की मित्रता बहाल करेगा। पर जब ऑकलैंड ने ये लिखित रूप से देने से मना कर दिया तब दोस्त मुहम्मद ने मुँह फेर लिया और रूसियों के साथ वार्ता आरंभ कर दी।
प्रथम आंग्ल अफ़गान युद्ध
[संपादित करें]शाह शुजा की मदद का बहाना बना कर अंग्रेज़ों ने काबुल पर हमला किया। १६००० की सेना में केवल १ अंग्रेज़ बटालियन था और बाकी भारतीय सेना और उनके परिवार वाले थे। पर इनमें से केवल एक अंग्रेज़ वापस लौटकर जलालाबाद पहुँच सका। बकि भार्तिएअ काहन गये।
द्वितीय आंग्ल अफ़ग़ान युद्ध
[संपादित करें]तृतीय आंग्ल अफ़ग़ान युद्ध
[संपादित करें]१९१९ में अफ़ग़ानिस्तान ने विदेशी ताकतों से एक बार फिर स्वतंत्रता पाई। आधुनिक काल में १९३३-१९७३ के बाच का काल अफ़ग़ानिस्तान का सबसे अधिक व्यवस्थित काल रहा जब ज़ाहिर शाह का शासन था, पर पहले उसके जीजा तथा बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्तापलट के कारण देश में फिर से अस्थिरता आ गई। सोवियत सेना ने कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग के लिए देश में कदम रखा और मुजाहिदीन ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और बाद में अमेरिका तथा पाकिस्तान के सहयोग से सोवियतों को वापस जाना पड़ा। ११ सितम्बर २००१ के हमले में मुजाहिदीन के सहयोग होने की खबर के बाद अमेरिका ने देश के अधिकांश हिस्से पर सत्तारुढ़ मुजाहिदीन (तालिबान), जिसको कभी अमेरिका ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ लड़ने में हथियारों से सहयोग दिया था, के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
वर्तमान
[संपादित करें]वर्तमान में (फरवरी २००७) देश में नैटो (NATO) की सेनाएं बनी हैं और देश में लोकतांत्रिक सरकार का शासन है। हंलांकि तालेबान ने फिर से कुछ क्षेत्रों पर अधिपत्य जमा लिया है, अमरीका का कहना है कि तालेबान को पाकिस्तानी जमीन पर फलने-फूलने दिया जा रहा है।