मुद्रास्फीति
मुद्रास्फीति (inflation) या महंगाई किसी अर्थव्यवस्था में समय के साथ विभिन्न माल और सेवाओं की कीमतों (मूल्यों) में होने वाली एक सामान्य बढ़ौतरी को कहा जाता है। जब सामान्य मूल्य बढ़ते हैं, तब मुद्रा की हर ईकाई की क्रय शक्ति (purchasing power) में कमी होती है, अर्थात् पैसे की किसी मात्रा से पहले जितनी माल या सेवाओं की मात्रा आती थी, उसमें कमी हो जाती है। मुद्रास्फीति के ऊँचे दर या अतिस्फीति की स्थिति जनता के लिए बहुत हानिकारक होती है और निर्धनता फैलाने का काम करती है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि यह बुरी अवस्थाएँ मुद्रा आपूर्ति (money supply) के अतिशय से उत्पन्न होती है, यानि अर्थव्यवस्था की तुलना में आवश्यकता से अधिक पैसा छापने से ज्न्म लेती है। मुद्रास्फीति का विपरीत अपस्फीति (deflation) होता है, यानि वह स्थिति जिसमें समय के साथ-साथ माल और सेवाओं की कीमतें गिरती हैं।[1][2]
मापन
[संपादित करें]मुद्रास्फीति का माप मुद्रास्फीति दर (inflation rate) से करा जाता है, यानि एक वर्ष से दूसरे वर्ष के बीच मूल्य वृद्धि का प्रतिशत। उदाहरण के लिएः 1990 में एक सौ रुपए में जितना सामान आता था, अगर 2000 में उसे खरीदने के लिए दो सौ रुपए व्यय करने पड़े है तो माना जाएगा कि मुद्रा स्फीति शत-प्रतिशत बढ़ गई।[3] अधिक मुद्रास्फीति का जनता पर बुरा असर पड़ता है क्योंकि उनकी क्रय शक्ति कम होने से उनकी आर्थिक स्थिति और जीवन स्तर में गिरावट आती है।[4] भारत में मुद्रा स्फीति का मापन थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) तथा औद्योगिक श्रमिक हेतु उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index) से होता है।
कारण
[संपादित करें]मुद्रास्फीति के कई कारण हो सकते हैं। इन्हें मुख्य रूप से दो भागो में बाँट सकते हैं:
- मांग कारक (demand pull)
- मूल्य वृद्धि कारक (cost push)
मांग कारक माल सेवा की मांग में वृद्धि से पैदा होते हैं जबकि मूल्य वृद्धि कारक स्पष्टतः मूल्य वृद्धि अथवा माल सेवा की आपूर्ति में कमी से उत्पन्न होते हैं।
मांग कारक
[संपादित करें]- बढ़ता सरकारी व्यय - जो की विगत कई सालों से बढ़ रहा हो जिस से सामान्य जनता के हाथों में अधिक धन आ जाता हैं जो उनकी खरीद क्षमता को बढाता है। यह मुख्य रूप से गैर योजना व्यय (Unplanned expenditure) है जो की अनुत्पादक प्रकृति का होता है तथा केवल क्रय क्षमता में तथा मांग में वृद्धि करता है।
- घाटे की पूर्ति तथा मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि से बढ़ते सरकारी व्यय की पूर्ति, घाटे के बजट (Deficit Budget) से तथा नई मुद्रा छाप कर की जाती हैं जो मुद्रा स्फीति तथा आपूर्ति दोनों में वृद्धि कर देते हैं।.....
मूल्य वृद्धि कारक
[संपादित करें]- उत्पादन-आपूर्ति में उतार चढ़ाव: जब कभी उत्पादन में अत्यधिक उतार चढ़ाव आता हैं या प्राप्त उत्पादन को मुनाफा कमाने वाले लोग जमा कर लेते हैं।
- उत्पादकता से अधिक वेतन वृद्धि लागत मूल्य को बढ़ाते हैं जो नतीजतन मूल्य में वृद्धि कर देते हैं, साथ ही मांग तथा क्रय क्षमता में भी वृद्धि होती हैं जो पहले वाले शीर्षक के अंतर्गत वृद्धि कर देती हैं।
- अप्रत्यक्ष कर भी लागत मूल्य बढ़ा कर सामग्री के मूल्य में वृद्धि के कारक बनते हैं।
- ढांचागत विकास में कमी या दोष से प्रति इकाई लागत मूल्य बढ़ता हैं जो कि सामान्य कीमत में वृद्धि कर देता हैं।
- प्रशासित मूल्य में वृद्धि जैसे खाद्यान्न के न्यूनतम समर्थन मूल्य या पेट्रोल तथा अन्य उत्पादों के मूल्य जिन्हें सरकार स्वेच्छा से निर्धारित करती हैं क्योंकि वे आम आदमी के बजट का एक बड़ा भाग होते हैं।
मुद्रा स्फीति के प्रभाव
[संपादित करें]मुद्रास्फीति के किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक क्षेत्र तथा अनार्थिक क्षेत्र पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते है-
- 1. निवेशकर्ता पर प्रभाव
निवेशकर्ता दो प्रकार के होते है। पहले प्रकार के निवेशकर्ता वे होते है जो सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश करते है। सरकारी प्रतिभूतियों से निश्चित आय प्राप्त होती है तथा दूसरे निवेशकर्ता वे होते है जो संयुक्त पूंजी कम्पनियों के हिस्से खरीदते है। इनकी आय मुद्रास्फीति के होने पर बढ़ती है। मुद्रास्फीति से निवेशकर्ता के पहले वर्ग को नुकसान तथा दूसरे वर्ग को फायदा होगा।
- 2. निश्चित आय के वर्ग पर प्रभाव
निश्चित आय के वर्ग में वे सब लोग आते है जिनकी आय निश्चित होती है जैसे श्रमिक, अध्यापक, बैंक कर्मचारी आदि। मुद्रास्फीति के कारण वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतें बढ़ती है जिसका प्रभाव निश्चित आय वर्ग पर पड़ता है। इस प्रकार मुद्रास्फीति के कारण निश्चित आय वर्ग नुकसान उठाता है।
- 3. कृषकों पर प्रभाव
मुद्रास्फीति का कृषक वर्ग पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि कृषक वर्ग उत्पादन करता है तथा मुद्रास्फीति के दौरान उत्पादन की कीमतें बढ़ती है। इस प्रकार मुद्रास्फीति के दौरान कृषक वर्ग को लाभ मिलता है।
- 4. ऋणी और ऋणदाता पर प्रभाव
मुद्रास्फीति का ऋणदाता पर प्रतिकूल तथा ऋणी पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। क्योंकि जब ऋणदाता अपने रुपये किसी को उधार देता है तो मुद्रास्फीति होने के कारण उसके रुपये का मूल्य कम हो जायेगा। इस प्रकार ऋणदाता को मुद्रास्फीति से हानि तथा ऋणी को लाभ होता है।
- 5. बचत पर प्रभाव
मुद्रास्फीति का बचत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि मुद्रास्फीति होने के कारण वस्तुओं पर किये जाने वाले व्यय में वृद्धि होती है। इससे बचत की सम्भावना कम हो जायेगी। दूसरी और मुद्रास्फीति से मुद्रा के मूल्य में कमी होगी और लोग बचत करना ही नहीं चाहेगें।
- 6. भुगतान संतुलन पर प्रभाव
मुद्रास्फीति के समय वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्यों में वृद्धि होती है। इसके कारण हमारे निर्यात मँहगे हो जायेगें तथा आयात सस्ते हो जायेगें। नियार्तों में कमी होगी तथा आयतों में वृद्धि होगी जिसके कारण भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल हो जायेगा।
- 7. सार्वजनिक ऋणों पर प्रभाव
मुद्रास्फीति के कारण सार्वजनिक ऋणों में वृद्धि हो जाती है क्योंकि जब कीमत स्तर में वृद्धि होती है तो सरकार को सार्वजनिक योजनाओं पर अपने व्यय को बढ़ाना पड़ता है इस व्यय की पूर्ति के लिए सरकार जनता से ऋण लेती है। अतः मुद्रास्फीति के कारण सार्वजनिक ऋणों में वृद्धि होती है।
- 8. करों पर प्रभाव
मुद्रास्फीति के कारण सरकार के सार्वजनिक व्यय में बहुत वृद्धि होती है। सरकार अपने व्यय की पूर्ति के लिए नये-नये कर लगाती है तथा पुराने करों में वृद्धि करती है। इस प्रकार मुद्रास्फीति के कारण करों के भार में वृद्धि होती हे।
- 9. नैतिक प्रभाव
मुद्रास्फीति के कारण व्यापारी वर्ग लालच में अंधा हो जाता है और जमाखोरी, मुनाफाखोरी तथा मिलावट आदि का प्रयोग उत्पादन को बेचने में करते है। सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते है तथा व्यक्तियों में नैतिक मूल्यों का पतन होता है।
- 10. उत्पादकों पर प्रभाव
मुद्रास्फीति के कारण उत्पादक तथा उद्यमी वर्ग को लाभ प्राप्त होता है क्योंकि उत्पादक जिन वस्तुओं का उत्पादन करते है उनकी कीमते बढ़ रही होता है तथा मजदूरी में भी वृद्धि कीमतों की तुलना में कम होती है। इस प्रकार मुद्रास्फीति से उद्यमी तथा उत्पादकों का फायदा होता है।
मुद्रास्फीति को नियन्त्रित करने के उपाय
[संपादित करें]मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपना सकते हैः
मौद्रिक उपाय
[संपादित करें]मौद्रिक नीति के द्वारा भी हम मुद्रा की पूर्ति को नियमित कर मुद्रास्फीति को नियत्रित कर सकते है। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए निम्नलिखित मौद्रिक उपायों को प्रयोग में लाया जा सकता है।
- 1. मुद्रा की मात्रा पर नियंत्रण
मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करके मुद्रास्फीति पर काबू पाया जा सकता है और मुद्रा की मात्रा को केन्द्रीय बैक द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। इस प्रकार जब केन्द्रीय बैंक मुद्रा की मात्रा पर कड़ा नियंत्रण लागू करे तो मुद्रा की मात्रा नियंत्रित हो जायेगी।
- 2. साख नियंत्रण
बढ़ती हुई कीमतों पर काबू पाने के लिए केन्द्रीय बैंक साख को नियंत्रित कर सकती है। साख को नियत्रित करने के लिए केन्द्रीय बैंक परिमाणात्मक तथा गुणात्मक दोनों प्रकार के उपायों को प्रयोग में ला सकती है। इन उपायों के अन्तर्गत बैंक दर में वृद्धि, रेपो दर तथा रिवर्स रेपो दर में वृद्धि, न्यूनतम नकद कोष में वृद्धि प्रतिभूतियों को खुले बाजार में बेचना, साख की राशनिंग तथा सीमान्त आवश्यकता में वृद्धि कर सकता है।
- 3. विमुद्रीकरण
अगर मुद्रास्फीति पर नियंत्रण कर पाना संभव न हो तो सरकार विमुद्रीकरण का भी सहारा ले सकती हैं। विमुद्रीकरण के अन्तर्गत सरकार पुरानी करेन्सी की जगह नई करेन्सी लेकर आती है। जिससे मुद्रास्फीति को नियंत्रण में लाया जा सकता है।
राजकोषीय उपाय
[संपादित करें]राजकोषीय उपायों में हम निम्नलिखित उपायों को शामिल कर सकते हैः
1. सार्वजनिक व्ययों में कमी--
सार्वजनिक व्ययों में वृद्धि से लोगों की क्रयशक्ति में वृद्धि होती है। क्रयशक्ति में वृद्धि होने से मांग में वृद्धि होगी तथा मांग में वृद्धि होने से कीमत स्तर में वृद्धि होगी। इस प्रकार सार्वजनिक व्यय में कमी करके हम मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर सकते है।
- 2. सार्वजनिक ऋणों में वृद्धि
कीमतों में वृद्धि मांग में वृद्धि होने के कारण होती है जिससे सार्वजनिक ऋणों में वृद्धि हो जाती है।मांग को कम करने के लिए सरकार निजी व्यक्तियों से ऋण ले सकती है। जब निजी क्षेत्र से ऋण लिया जायेगा तो निजी क्षेत्र के व्यय में कमी हो जायेगी। इस प्रकार सार्वजनिक व्ययों में वृद्धि करके भी मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर सकते है।
- 3. करों में वृद्धि
मुद्रास्फीति के कारण सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होती है। इस व्यय की पूर्ति के लिए सरकार नये-नये कर लगाती है तथा पुराने करों की दरों में वृद्धि करती है। करों की दरों में वृद्धि का उत्पादन पर उल्टा प्रभाव पड़ता है।
- 4. घाटे की वित्त व्यवस्था में कमी
घाटे की वित व्यवस्था उस समय अपनाई जाती है जब सरकार की आय उसके द्वारा किए गए व्यय से कम रह जाती है घाटे की वित व्यवस्था में सरकार नई मुद्रा को जारी करती है और अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति को बढ़ाती है। अतः मुद्रास्फीति को नियत्रित करने के लिए घाटे की वित्त व्यवस्था को कम करना होगा।
अन्य उपाय
[संपादित करें]मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक तथा राजकोषीय उपायों के अतिरिक्त कुछ अन्य उपाय भी है।
- 1. उत्पादन में वृद्धि
उत्पादन में वृद्धि करके भी मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जा सकता है क्योंकि मुद्रास्फीति उस समय पैदा होती है जब कुल मांग कुल पूर्ति से ज्यादा हो जाता है। इस प्रकार हम कुल पूर्ति या उत्पादन को बढ़ाकर मुद्रास्फीति को नियात्रित कर सकते हैं।
- 2. बचत को प्रोत्साहन देकर
बचत को बढ़ाकर भी मुद्रास्फीति को नियत्रित कर सकते है। सरकार द्वारा बचत को प्रोत्साहित करने वाली योजनाएं चलानी चाहिए। जब बचत में वृद्धि होती है तो निजी व्ययों में कमी होगी तथा मांग स्वयं ही कम हो जायेगी तथा कीमत स्तर नियंत्रण में आ जायेगा।
- 3. कीमत निंयत्रण तथा राशन व्यवस्था
राशन व्यवस्था मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए महत्वपूर्ण व्यवस्था है। राशनिंग व्यवस्था में कीमत स्तर भी ज्यादा नहीं बढ़ता तथा सब लोगों को अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुएं भी मिल जाती है।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Why price stability? Archived अक्टूबर 14, 2008 at the वेबैक मशीन, Central Bank of Iceland, Accessed on September 11, 2008.
- ↑ Paul H. Walgenbach, Norman E. Dittrich and Ernest I. Hanson, (1973), Financial Accounting, New York: Harcourt Brace Javonovich, Inc. Page 429. "The Measuring Unit principle: The unit of measure in accounting shall be the base money unit of the most relevant currency. This principle also assumes that the unit of measure is stable; that is, changes in its general purchasing power are not considered sufficiently important to require adjustments to the basic financial statements."
- ↑ Goodwin, N, Nelson, J; Ackerman, F & Weissskopf, T: Microeconomics in Context 2d ed. Page 83 Sharpe 2009
- ↑ "Inflation Theory in Economics: Welfare, Velocity, Growth and Business Cycles," Max Gillman, Taylor and Francis, 2009, ISBN 9781134021741.